एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है || Ghazal Of Jaun Elia - Opal Poetry
June 03, 2022
एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है
एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है
धूप आँगन में फैल जाती है
धूप आँगन में फैल जाती है
शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है
फ़र्श पर काग़ज़ उड़ते फिरते हैं
मेज़ पर गर्द जमती जाती है
सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर
अब किसे रात भर जगाती है
मैं भी इज़्न-ए-नवा-गरी चाहूँ
बे-दिली भी तो लब हिलाती है
सो गए पेड़ जाग उठी ख़ुश्बू
ज़िंदगी ख़्वाब क्यूँ दिखाती है
उस सरापा वफ़ा की फ़ुर्क़त में
ख़्वाहिश-ए-ग़ैर क्यूँ सताती है
आप अपने से हम-सुख़न रहना
हम-नशीं साँस फूल जाती है
क्या सितम है कि अब तिरी सूरत
ग़ौर करने पे याद आती है
कौन इस घर की देख-भाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है
Jaun Elia
बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं
रम्ज़