शायद || Shayad Nazm Of Jaun Elia - Opal Poetry

"शायद"


 मैं शायद तुम को यकसर भूलने वाला हूँ 
शायद जान-ए-जाँ शायद 
कि अब तुम मुझ को पहले से ज़ियादा याद आती हो 
है दिल ग़मगीं बहुत ग़मगीं 
कि अब तुम याद दिलदाराना आती हो 
शमीम-ए-दूर-माँदा हो 
बहुत रंजीदा हो मुझ से 
मगर फिर भी 
मशाम-ए-जाँ में मेरे आश्ती-मंदाना आती हो 
जुदाई में बला का इल्तिफ़ात-ए-मेहरमाना है 
क़यामत की ख़बर-गीरी है 
बेहद नाज़-बरदारी का आलम है 
तुम्हारे रंग मुझ में और गहरे होते जाते हैं 
मैं डरता हूँ 
मिरे एहसास के इस ख़्वाब का अंजाम क्या होगा 
ये मेरे अंदरून-ए-ज़ात के ताराज-गर 
जज़्बों के बैरी वक़्त की साज़िश न हो कोई 
तुम्हारे इस तरह हर लम्हा याद आने से 
दिल सहमा हुआ सा है 
तो फिर तुम कम ही याद आओ 
मता-ए-दिल मता-ए-जाँ तो फिर तुम कम ही याद आओ 
बहुत कुछ बह गया है सैल-ए-माह-ओ-साल में अब तक 
सभी कुछ तो न बह जाए 
कि मेरे पास रह भी क्या गया है 
कुछ तो रह जाए
Jaun Elia

रम्ज़

तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो