Sar Hi Ab Foriye Nadamat Me - Jaun Elia

 सर ही अब फोड़िए नदामत में || Ghazal Of Jaun Elia - Opal Poetry


सर ही अब फोड़िए नदामत में
नींद आने लगी है फ़ुर्क़त में

हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर
सोचता हूंतिरी हिमायत में

रूह ने इश्क़ का फ़रेब दिया
जिस्म को जिस्म की अदावत में

अब फ़क़त आदतों की वर्ज़िश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में

इश्क़ को दरमियांन लाओ कि मैं
चीख़ता हूंबदन की उसरत में

ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी हैं मुरव्वत में

वो जो तामीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में

ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में

हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में

फिर बनाया ख़ुदा ने आदम को
अपनी सूरत पे ऐसी सूरत में

ऐ ख़ुदा जो कहीं नहीं मौजूद
क्या लिखा है हमारी क़िस्मत में 
Jaun Elia

गाहे गाहे बस अब यही हो क्या


किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे