Ham Ne Khud Apni Rahnumai Ki - Rahat Indori

हम ने ख़ुद अपनी रहनुमाई की  || Ghazal Of Rahat Indori - Opal Poetry


हम ने ख़ुद अपनी रहनुमाई की 
और शोहरत हुई ख़ुदाई की 

मैं ने दुनिया से मुझ से दुनिया ने 
सैकड़ों बार बेवफ़ाई की 

खुले रहते हैं सारे दरवाज़े 
कोई सूरत नहीं रिहाई की 

टूट कर हम मिले हैं पहली बार 
ये शुरूआ'त है जुदाई की
 
सोए रहते हैं ओढ़ कर ख़ुद को 
अब ज़रूरत नहीं रज़ाई की
 
मंज़िलें चूमती हैं मेरे क़दम 
दाद दीजे शिकस्ता-पाई की 

ज़िंदगी जैसे-तैसे काटनी है 
क्या भलाई की क्या बुराई की 

इश्क़ के कारोबार में हम ने 
जान दे कर बड़ी कमाई की 

अब किसी की ज़बाँ नहीं खुलती 
रस्म जारी है मुँह-भराई की 
Rahat Indori


चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया 

बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते 

हम ने ख़ुद अपनी रहनुमाई की