Shahar Kya Dekhe Ki Har Manzar Me Jale Par Gaye - Rahat Indori

शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए || Ghazal Of Rahat Indori- Opal Poetry


शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए 
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए 

मैं अँधेरों से बचा लाया था अपने-आप को 
मेरा दुख ये है मिरे पीछे उजाले पड़ गए 

जिन ज़मीनों के क़बाले हैं मिरे पुरखों के नाम 
उन ज़मीनों पर मिरे जीने के लाले पड़ गए 

ताक़ में बैठा हुआ बूढ़ा कबूतर रो दिया 
जिस में डेरा था उसी मस्जिद में ताले पड़ गए 

कोई वारिस हो तो आए और आ कर देख ले 
ज़िल्ल-ए-सुब्हानी की ऊँची छत में जाले पड़ गए 
Rahat Indori

काली रातों को भी रंगीन कहा है मैं ने 

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है

शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए